--:चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार में भेद:--
--:चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार में भेद:--
शरीर में जो तत्व चंचल है, वह 'चित्त' है और जो तत्व मननशील है, वह है--'मन'। चित्त और मन दोनों तत्व योग-साधना में साधन हैं, साध्य नहीं। साध्य है--अपने मूल को प्राप्त करना। इस दिशा में चित्त-शक्ति गति देती है। मन अनुभव करता है और उन अनुभवों को स्वीकार भी करता है। जीवन लगातार आगे बढ़ता जाता है। चित्त-शक्ति लगातार गति दे रही है। इसी चित्त-शक्ति को काल-शक्ति (महाकाली) कहा जाता है। जीवन-यात्रा के जिस पड़ाव में जो घटना घटती है, उसका अनुभव मनः-शक्ति स्वीकार करती जाती है। तंत्र के अनुसार मनः-शक्ति महालक्ष्मी है। उस अनुभव से मनुष्य को जो ज्ञान प्राप्त होता है वह तन्त्र की ज्ञान-शक्ति (महासरस्वती) है।
चित्त चंचल है। उसका गहरा सम्बन्ध मन से है। इसी सबन्ध के कारण मन भी चंचल है, अस्थिर है। लेकिन मन का स्वाभाविक गुण है--मनन करना। मन तभी चिंतन-मनन करता है जब चित्त स्थिर हो जाता है। इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि जब मन चिंतन-मनन की ओर अग्रसर होता है तो चित्त स्वयं ही स्थिर हो जाता है। उस स्थिरता को चित्त की एकाग्रता नहीं समझ लेना चाहिये। एकाग्रता कुछ और ही है।
पहले मन को स्थिर होना चाहिए और उसी के साथ चित्त को भी होना चाहिए स्थिर। दोनों की स्थिरता एक-दूसरे पर आधरित है।
चित्त और मन जब दोनों एक ही अवस्था को उपलब्ध होते हैं तो तब 'प्राण' की गति धीरे-धीरे मन्द होने लग जाती है और मन भी स्वयं अपने आप में लीन होने लग जाता है।
मन का अर्थ है--मनन-चिंतन, विचार जो दिखलायी दे, उसके साथ चिंतन की धारा को जोड़ देना। जैसे आप एक फूल को देखते हैं। जब तक देखते हैं, तब तक आपके मन से फूल का सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जैसे ही आप कहते हैं--"फूल बहुत सुन्दर है, सुगंधमय है", उसी क्षण मन से फूल का सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसी प्रकार जब आप कहते हैं--"फूल बेकार है, उसमें तो गन्ध है ही नहीं" तब भी मन आपके और फूल के बीच आ जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छे और बुरे दोनों स्थितियों में मन की उपस्थिति अनिवार्य है, साथ ही उसकी क्रियाशीलता भी। आप मन के आधीन हो जाते हैं। सारांश यह कि जब तक दर्शन (देखना) है, तब तक मन नहीं है, लेकिन जब दर्शन के साथ भाव जुड़ जाता है,विचार जुड़ जाता है, शब्द जुड़ जाता है तो मन की गति शुरू हो जाती है।
मन का मतलब है--भाव, विचार, भावना। मन शब्द को आविर्भूत करने का एक यन्त्र है। कहने का अर्थ है कि भावों, विचारों और शब्दों का जो जाल है, वह हमारा मन है।
ध्यान का अर्थ है--मन का खो जाना। ध्यान का अर्थ है--भाव का, विचार का, शब्द का खो जाना। इसका आशय यह नहीं कि जो व्यक्ति ध्यान में प्रवेश करेगा, वह बोलेगा नहीं, वह शब्द या भाषा का प्रयोग नहीं करेगा। वह बोलेगा, वह शब्द या भाषा का प्रयोग करेगा। मगर तब उसका बोलना 'बोलना ' होगा। उसके बोलने में मन का प्रयोग नहीं होगा। वह अ-मन की स्थिति में बोलेगा। इसी को योगीगण 'ऋतम्भरा' वाणी कहते हैं। 'ऋतम्भरा' वाणी वह है जो मन से नहीं, सीधे आत्मा से निकलती है।
अ-मन में 'जीवन के ऐक्य' का बोध होता है। मन की विशेषता यह है कि वह किसी वस्तु को तोड़कर, विभाजित कर देखता है। इस प्रक्रिया में जीवन खण्ड-खण्ड हो जाता है। मन किसी वस्तु को पूर्णता में नहीं देख पाता। जीवन को देखेगा तो उसे बांट देगा--जन्म और मृत्यु में। मेरा मन जो कहेगा और आपका मन जो कहेगा, उसमें आपस में मेल हो, तारतम्य हो--जरूरी नहीं। जब कोई व्यक्ति मन से कहे कि 'ईश्वर है' तो उसका कहना असत्य है। क्योंकि मन की ईश्वर को देखने की क्षमता नहीं है, लेकिन वही व्यक्ति अ-मन की अवस्था में देखकर कहता है कि "ईश्वर है' तो उसका कहना सत्य है, क्योंकि उसने अ-मन की स्थिति में ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है। मनस्वी व्यक्ति विद्वान होता है, मनीषी होता है, उसके द्वारा दर्शन प्रकट हो सकता है लेकिन धर्म उस व्यक्ति के द्वारा प्रकट होता है, जिसका मन खो गया है। धर्म का प्राकट्य हुआ है अ-मन की स्थिति में ऋषि या योगी के द्वारा लेकिन उसका प्रचार-प्रसार किया है मनुष्य ने, उसके मन ने, बुद्धि ने। तो उसने गलत दिशा और दशा को प्राप्त होकर दर्शन का रूप ले लिया। द्वैत की स्थिति का जनक मन ही है। अद्वैत की स्थिति तभी बनती है जब मन 'मन' नही रह जाता, आत्मा में लीन हो जाता है। केवल आत्मा रह जाती है, वही स्थिति अद्वैत है, कैवल्य है।
मनस्तत्व की अवस्था के अनुसार कई रूप हैं--चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार। जो तत्व चंचल है, वह चित्त है, जो मननशील है, वह मन है, जो तत्व निश्चय, निर्णय, संकल्प करे, वह बुद्धि है और जो तत्व अपने-पराए में भेद करे और दूसरे को अपने से हेय समझे, वह 'अहंकार' है।
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